जिनवाणी ही आत्मोन्नति का माध्यम: परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब

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उत्तराध्ययन सूत्र के माध्यम से चातुर्मास काल में मिलेगा आत्मविकास का पाठ

धमतरी | परम पूज्य उपाध्याय प्रवर अध्यात्मयोगी महेंद्र सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य उपाध्याय प्रवर युवामनीषी स्वाध्याय प्रेमी मनीष सागर जी महाराज साहेब के सुशिष्य परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि परमात्मा की अमूल्य धरोहर जो जिनवाणी के रूप में हमारे पास है। जिनवाणी मां के समान है। जिस प्रकार मा हमे संस्कार सिखाती है जीवन विकास की शिक्षा देती है। ठीक उसी प्रकार जिनवाणी भी हमें संस्कार की शिक्षा देता है और आत्मविकास का पाठ पढ़ाता है। इस जिनवाणी के हमेशा हमे आरती उतारना चाहिए। जिनवाणी के श्रवण और उस पर श्रद्धा रखने से आत्म चेतना जागृत होती है। और यही आत्म चेतना हमे परम लक्ष्य की ओर ले जाता है। जिनवाणी के श्रवण करने मात्र से संसार के प्रति राग में कमी आती है। और यदि इसे जीवन में उतार ले तो यह जिनवाणी हमे श्री सीमांधर स्वामी के पास अर्थात अरिहंत परमात्मा तक पहुंचा सकता है। उसके बाद मोक्ष को प्राप्त करना निश्चित हो सकता है। जिनवाणी हमे आत्मानुभूति कराता है। आज परमात्मा हमारे समक्ष नहीं है किंतु जिनवाणी के रूप में आप भी है। भगवान महावीर ने जो अंतिम देशना दी। वो उत्तराध्ययन सूत्र में है। उसमें 26 अध्याय है उसका कुछ भाग इस चातुर्मास काल में हम जिनवाणी के माध्यम से श्रवण करेंगे। इस आगम अर्थात सूत्र के माध्यम से हम परमात्मा के जीवन को जानने का प्रयास करेंगे। परमात्मा ने जो कहा उसे आगम कहते है। आगम परमात्मा के गणधरो द्वारा लिखा जाता है। जिसमें अक्षरशः परमात्मा के वचन होते है। तीर्थंकरों की परंपरा से आगम लिखा जाता है। आत्म पुरुषों द्वारा जो कहा गया वही आगम है। आत्मपुरुष अर्थात जिनमें कोई विकार न हो अर्थात जो संस्कार की दृष्टि से परिपूर्ण हो। ऐसा ज्ञान जो अपने आप में पूर्ण हो उसे आगम कहते है। ज्ञानियों के अनुसार आगम दो प्रकार के आगम होते है।
अंग प्रविष्ट आगम – परमात्मा की उपस्थिति में ही गणधरों द्वारा सूत्र के रूप में रचना की जाती है।
अंग बाह्य आगम – परमात्मा के शासन में गणधरों के शिष्य द्वारा जो रचना की जाती है और इसे प्रमाणित गणधरो द्वारा किया जाता है। परमात्मा का ज्ञान अनंत होता है । जिसका कुछ अंश आगम के रूप में हमे उपलब्ध है। परमात्मा की वाणी श्रवण करना अत्यंत दुर्लभ है। आजतक हम अपने ज्ञान का उपयोग बाह्य साधनों को पाने के लिए करते रहे है। किंतु आज से जिनवाणी श्रवण के माध्यम से हमें अपने ज्ञान का उपयोग सम्यक ज्ञान को प्राप्त करने के लिए करना है। हम सांसारिक वस्तुओं को दुर्लभ मानते है जबकि परमात्मा कहते है सबसे पहले निग़ोद से निकलना दुर्लभ है । वहां से निकलने के बाद भी पांच इंद्रियों में भटकने लगते है। जब वहां से निकलते है तो चार गति में भटकते है अर्थात मनुष्य जीवन प्राप्त करना दुर्लभ है। मनुष्य जीवन मिलने के बाद भी पांचों इंद्रियों को प्राप्त करना और फिर लंबी आयु प्राप्त करना दुर्लभ है। इसके बाद आर्य देश अर्थात जहां असि, मसी और कृषि का व्यवहार हो वह आर्य देश कहलाता है। ऐसे स्थान पर जन्म लेना दुर्लभ है। उसके बाद श्रावक कुल अर्थात जिनशासन मिलना दुर्लभ है। जिनशासन भी मिल जाए तो जिनवाणी अर्थात धर्म को सुन पाना और उसे श्रद्धा पूर्वक जीवन में उतारना दुर्लभ है। उसके बाद सर्वविरती धर्म अर्थात साधु जीवन को पाना और अधिक दुर्लभ है। साधु जीवन को पाने के बाद साधु जीवन की शुद्ध दशा को प्राप्त करना भी दुर्लभ है। उसके बाद केवलज्ञान को प्राप्त करना दुर्लभ है। और जिस जीव ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया उसके लिए और कोई दुर्लभता शेष नहीं रहता क्योंकि अब इसी भाव में उसका सिद्ध – बुद्ध और मुक्त होना निश्चित है। और इन दुर्लभताओं को प्राप्त करने के लिए जीवन में सकारात्मक प्रयास करना आवश्यक है। संघवी श्री रानुलाल जी विजयलाल जी गोलछा परिवार द्वारा परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य योगवर्धन जी महाराज साहेब को उत्तराध्ययन सूत्र बोहराया गया। इस सूत्र का श्रवण चातुर्मास काल में श्रीसंघ गुरु भगवन्तों के माध्यम से श्रवण करेंगे। भगवान महावीर की अंतिम देशना जो उत्तराध्ययन सूत्र में उपलब्ध है। तीर्थंकर परमात्मा किसी के पूछने पर ही  देशना देते है। किंतु यह ऐसा सूत्र है जिसमें परमात्मा के उन वचनों का उल्लेख है जो बिना किसी के पूछे परमात्मा द्वारा कहा गया है। भगवान महावीर की अंतिम देशना लगातार 16 प्रहर तक चली। जो उत्तराध्ययन सूत्र में है।