संसार में सुख नहीं, आत्मा में सुख है — हिंसा त्याग कर पाप से बचें, पुण्य की ओर बढ़ें

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धमतरी l परम पूज्य उपाध्याय प्रवर अध्यात्मयोगी महेंद्र सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य उपाध्याय प्रवर युवामनीषी स्वाध्याय प्रेमी मनीष सागर जी महाराज साहेब के सुशिष्य परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि प्रतिदिन प्रातःकाल स्वाध्याय सत्संग के माध्यम से हम सभी गुरु और धर्म से जुड़ने का प्रयास कर रहे है। जुड़ने का लक्ष्य केवल इतना ही है कि उन्होंने जो पाया है उसे मैं भी पा सकूं। परमात्मा ने उस परम अवस्था को प्राप्त कर लिया है जिसे प्राप्त करने वाला परम सुखी हो जाता है। और उस अवस्था तक पहुंचने का मार्ग बताने वाले गुरु होते है। ज्ञानियों ने फरमाया है जिसे प्राप्त करने के बाद कुछ न करना पड़े वही सुख है। इसलिए संसार में सुख खोजना व्यर्थ है क्योंकि हम संसार में प्रत्येक कार्य पता नहीं कितने बार कर चुके है और आने वाले भव ने और कितने बार करना पड़ेगा। इसलिए परम सुख प्राप्त करना हो तो परमात्मा ने जो कार्य किया हमे वैसा ही कार्य करना पड़ेगा। हमें सुख प्राप्त करना हो तो अपने अंदर खोजना होगा। दुख का कारण हमारी इच्छा, लोभ, मान और माया है। हमें चिंतन,मनन करना है अगर हम सुख प्राप्त करने की इच्छा कर रहे है तो क्या कार्य उसके अनुरूप हो रहा है। हमारा कार्य आत्मा को लक्ष्य करके होना चाहिए। संसार की कोई वस्तु, व्यक्ति, पद, पैसा या प्रतिष्ठा हमे सुख देने में सक्षम नहीं है। संसार में सुख खोजने वाला ही पाप कार्य करता है। इसलिए अपनी मान्यता को सही करना है कि सुख आंतरिक अर्थात अपने अंदर है बाहर नहीं। पाप कार्य के परिणाम के रूप में जीवन में क्लेश या कलह, संताप, दुखी या तनाव, अशांति, भय, अस्वस्थता आता है और अंत में दुर्गति ही देता है। सुख की कल्पना में हम पाप कार्य करते है और ये दुख का कारण बन जाता है। संसार में सुख खोजने वाले का कार्य लगातार बदलते रहता है जबकि आंतरिक सुख खोजने वाला लगातार एक ही कार्य करते रहता है। परमात्मा और पुण्य से हमारी प्रीति बढ़े पाप से कम हो , जिस दिन हमारी जीवनशैली इस प्रकार बन जाएगी कि आत्मविकास का सही मार्ग प्रशस्त हो जाएगा। जीवन में हम 18 प्रकार से पाप कार्य करते है ।
*पहला पाप है प्राणतिपात* अर्थात प्राणों से अती पाप करना। किसी के जीवन को छीन लेना या जीवन में किसी को इस प्रकार कष्ट देना की उसका जीवन संकट में आ जाए। हमें सबसे प्रिय है अपना जीवन। और जीवन छीन लें ही हिंसा है।
जो पतन की ओर ले जाए वो पाप है। जिस कार्य से आत्मा गिर रही है अर्थात जिससे आत्मा का विकास रुक जाए वो पाप है। और जिससे आत्मा का विकास हो वह पुण्य है। हम दो प्रकार से पाप करते है पुण्यानुबंधी पाप और पापानुबंधी पाप। पुण्य के उदय में किया गया पाप तीव्र बंध का कारण है और पाप के उदय में किया गया पाप मंद बंध का कारण है। क्योंकि पहली दशा में हम आवश्यकता न होने पर भी पाप करते है जबकि दूसरी दशा में हम जरूरत या मजबूरी में पाप करते है। धर्म में प्रवेश करने के लिए सबसे पहले हिंसा का त्याग आर्थर अहिंसक होना जरूरी है। इसलिए 18 पापस्थानकों में पहले प्राणतिपात अर्थात हिंसा को रखा गया है। हिंसा करते करते हमारा जीवन भी कठोर हो जाता है। और हमारे जीवन से कोमलता का गुण चले जाता है।