“जीवन को आत्मविकास की दिशा में मोड़ो, प्रमाद से बचो — प्रशम सागर जी महाराज”

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धमतरी | परम पूज्य उपाध्याय प्रवर अध्यात्मयोगी महेंद्र सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य उपाध्याय प्रवर युवामनीषी स्वाध्याय प्रेमी मनीष सागर जी महाराज साहेब के सुशिष्य परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य योगवर्धन जी महाराज साहेब श्री पार्श्वनाथ जिनालय इतवारी बाजार धमतरी में विराजमान है। आज दिनांक 31 जुलाई 2025 को परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि एकबार एक बच्चे से कक्षा से पूछा गया कि तुम कौन सा विषय नहीं पढ़ना चाहते। तो एक बच्चे ने कहा इतिहास। कारण बताया कि इतिहास बनाता कोई और है। लिखता कोई और है लेकिन पढ़ना हमे पड़ता है। उसका हमारे जीवन से कोई लेना देना नहीं है। फिर उसे पढ़ने का क्या अर्थ है। ठीक उसी प्रकार आजतक हम संसार को बढ़ाने वाले ज्ञान को पढ़ते आए है जिससे आत्मा का कोई संबंध नहीं है। अब हमें उस ज्ञान को उस विषय को पढ़ना है जिसका संबंध आत्मा से है जिससे आत्मा का विकास हो सकता है। उत्तराध्यान सूत्र का चौथा अध्याय है असंस्करित। इसका अर्थ है जिसे जोड़ा या बदला न जा सके। इसके विपरीत संस्करित अर्थात जिसे जोड़ा जा सके या बदला जा सके। किसी भी जीव का जीवन असंस्करित है। क्योंकि एक दिन इस शरीर का इसका अंत जरूर होगा। शरीर का अंत होने पर दुख नहीं महोत्सव मनाया जाए। हमें इस प्रकार का जीवन व्यतीत करना चाहिए। ज्ञानी कहते है यह जीवन क्षणभंगुर है इसलिए क्षणभर भी प्रमाद अर्थात आलस्य नहीं करना चाहिए। क्योंकि प्रमाद करने वाले का जीवन व्यर्थ हो जाता है। यह दुर्लभ मानव जीवन प्रमाद के लिए नहीं बल्कि आत्मा के विकास के प्रति जागरूक होने के लिए मिला है। जागरूक रहने वाला जीव ही जीवन को जीवंत बना सकता है। अगर कोई आंख बंद करके सोता है तो संसार की दृष्टि से कुछ जन-धन की हानि हो सकती है। लेकिन ज्ञानीं कहते हैं जो खुली आंख से सोता है अर्थात जिसकी आंख खुली होती है लेकिन अज्ञानता या मिथ्यात्व के अंधकार में सोते रहता है उसके आत्मा का विकास रुक जाता है। हम जीवन में अर्थ अर्थात धन और भोग के लिए हमेशा जागृत रहते है। लेकिन धर्म, आराधना , साधना की दृष्टि से सोए हुए है अर्थात प्रमाद कर रहे है। अर्थ भोग केवल एक जन्म साथ रहेगा लेकिन धर्म करेंगे तो वो आने वाले भव में भी फलदायक होगा। लेकिन फिर भी हम केवल एक जन्म का ही सोचते है। वास्तव में हम धर्म को बुढ़ापे का कार्य मानते है लेकिन बुढ़ापा आएगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। अगर बुढ़ापा आ भी गया तो शरीर कार्य करने के योग्य रहेगा इसकी भी कोई गारंटी नहीं। हर पल जाते हुए जीवन को देखकर आत्मा को संभालना है। मेरे जाने के बाद मेरे परिवार का क्या होगा सोचने वाला अर्थ और भोग में लगा रहता है जबकि मेरे जाने के बाद मेरा क्या होगा सोचने वाला आत्मा के विकास के लिए पुरुषार्थ करता है। परमात्मा कहते है मानव जीवन आत्मा के विकास के लिए मिला है लेकिन हम इसे अर्थ और भोग के विकास में लगा देते है। परिणाम स्वरूप आत्मा का विकास होने के स्थान पर पतन होने लग जाता है। जीवन इंद्रधनुष के जैसा सुंदर है।किंतु कुछ ही समय में दिखाई देना बंद हो जाता है। उसी प्रकार जीवन सुंदर तो है लेकिन कब खत्म हो जाए इसका कब अंत हो जाए पता नहीं। 18 पाप स्थानकों में पांचवां है परिग्रह – संसार की वस्तुओं का संग्रह करते है ये द्रव्य परिग्रह कहलाता है जबकि किसी के प्रति आसक्त हो जाना भाव परिग्रह कहलाता है। जिसके बिना हम जी नहीं सकते उसे आसक्ति कहते है। जो आसानी से आ सकती है लेकिन जा नहीं सकती उसे आसक्ति कहते है। जीवन में किसी व्यक्ति, विचार, वस्तु या अन्य किसी का भी अपरिग्रह हो सकता है। आसक्ति को ही कमजोरी कहते है। आसक्ति दुख का कारण है। आसक्ति ही पाप कार्य कराता है। आसक्त बनना आसान है किंतु आसक्ति से मुक्ति पाना बहुत कठिन है। आसक्ति जीवन को आकुल व्याकुल कर देता है।