“झूठे संसार से नाता तोड़ो, आत्मा से राग करो” — परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज का आत्मिक संदेश

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धमतरी| श्री पार्श्वनाथ जिनालय, इतवारी बाजार में चातुर्मास के पावन अवसर पर विराजमान परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने आज के प्रवचन में आत्मा और शरीर के भेद को समझाते हुए श्रद्धालुओं को मोह, माया और कषायों से मुक्त होने की प्रेरणा दी। उन्होंने फरमाया कि यह संसार पाप की नगरी है, और इससे नाता तोड़कर प्रभु से नाता जोड़ना ही आत्मा की सच्ची उन्नति है।

प्रवचन के मुख्य बिंदु:

चार दिन की जिंदगी को पुण्य कार्यों में समर्पित करना चाहिए क्योंकि मृत्यु कब आ जाए, कोई नहीं जानता।
यह संसार एक झूठा खेल है, और शरीर नश्वर है। केवल कर्म ही साथ जाने वाला है।
आत्मा का विकास ही मानव जीवन का उद्देश्य है — न कि सुविधाओं की अंधी दौड़।

 परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि ये संसार पाप की नगरी है इसलिए इस झूठे संसार से नाता तोड़ना है और प्रभु से नाता जोड़ना है । चार दिन की जिंदगी है इसे पुण्य कार्यों में विनियोग करना है। प्रभु का ध्यान करने से जीवन उज्ज्वल हो सकता है। जीवन में कुछ पुण्य कर लो क्योंकि जीवन कब ढल जाएगा पता नहीं। ये संसार एक झूठा खेल है जिसे हम अपना समझते है। ये नश्वर काया है इसे छोड़कर एक दिन सभी को जाना है। इसलिए हे जीव तू शरीर का मोह त्याग कर आत्मा से राग कर। यही राग तुझे वीतराग बना सकता है। जीवन में संसार की कोई वस्तु साथ नहीं जाएगी। हमने जो कर्म किया है वही साथ जाने वाला है। जीवन का जो समय बीत गया वो भी वापस नहीं आने वाला। इसलिए तू अब सचेत हो जा। संसार के मोह से निकलकर आत्मा के विकास के मार्ग को चुन ले। ये संसार मोह से भरा हुआ है। और ये मोह हमे आत्मा के बारे में सोचने का अवसर नहीं देता।
हम चातुर्मास काल में प्रतिदिन सत्संग के लिए इकट्ठा हो रहे है। और इसका एक ही उद्देश्य है कि हम शरीर और आत्मा के भेद को समझ सके। जिनवाणी के माध्यम से आत्मा के विकास का पुरुषार्थ कर सके। परमात्मा कहते है मुक्ति का मार्ग स्वतंत्रता में निहित है। जिस दिन हम कर्म के बंधनों से स्वतंत्र हो जाएंगे उस दिन हमारी भी आत्मा स्वतंत्र अर्थात सिद्ध बुद्ध हो जाएगी। बंधन का कारण भय संज्ञा है। भय के कारण ही एक के बाद एक बंधनों में बंधते जाते है। पूरे जीवन भर जीव क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय के बंधन में बंधे रहता है। इसलिए आत्मा मुक्त नहीं हो पाती है। हमें जीवन में बंधन को पहचानने का पुरुषार्थ करना है ताकि उससे मुक्त होने का प्रयास कर सके। कर्म भाव प्रधान है। जीवन में गुणी जनों से मिलाप होने पर उनके गुणों से प्रभावित होकर आत्मविकास का मार्ग खोजना चाहिए। और जब जीवन में अवगुणी लोगों से मिलाप हो तो उनके अपने गुणों से उन्हें प्रभावित करने का प्रयास करना चाहिए अर्थात परिषह जय की स्थिति में आ जाना चाहिए। जीवन में सहनशील व्यक्ति ही सुखी हो सकता है। सहनशीलता का गुण कर्म बंधन को भी रोकता है। जिनशासन हमें क्षमा नहीं बल्कि उत्तम क्षमा का ज्ञान देता है।
क्षमा – सामने वाले की गलती लगे फिर भी उसे माफ कर देना ही क्षमा है।
उत्तम क्षमा – सामने वाला गलती करके भी हमे गलत न लगे। यही उत्तम क्षमा है।
जीवन में किसी भी परिस्थितियों का प्रभाव हमारे शरीर को प्रभावित करता है आत्मा को नहीं। परिस्थिति से प्रभावित होने वाला चारगति से कभी भी मुक्त नहीं हो सकता। ज्ञानी कहते है परिस्थिति से प्रभावित न होने वाले का हर कार्य धर्म है।

उत्तराध्ययन सूत्र का दूसरा अध्याय परिषह प्रविभक्ति है। परिषह 22 प्रकार के होते है।
तीसरा परिषह है शीत परिषह और चौथा है उष्ण परिषह। शीत अर्थात ठंडी और उष्ण अर्थात गर्मी । जब इस परिषह के कारण जीवन में प्रतिकूल या अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न न हो। अर्थात इसे सहन करने की क्षमता होनी चाहिए। जीवन में मनोबल की कमी ही हमे साधन भोगी और सुविधा भोगी बना देता है। जीवन में सुविधा के साथ कमजोरी भी बढ़ता है। हमें जीवन में कमजोरी कम करने का प्रयास करना है। पुण्य की बात ये नहीं है कि सुविधा बढ़ रही है पुण्य की बात ये है कि हम कमजोरी को कम करे। जीवन में अनुकूलता पुण्य से मिलती है लेकिन अनुकूलता का राग पाप का बंध कराता है।
पांचवां परिषह है दंश प्रसह परिषह – दंश अर्थात डंक मारने वाला जीव जैसे मच्छर। मच्छर का मतिज्ञान इतना कम होता है कि उसे ये ज्ञान नहीं होता कि किसी को काटकर वो उसे दुख दे रहा है। जबकि हम उस मच्छर के काटने पर उसे मार देते है। मच्छर अज्ञानता में पाप करता है और हम जानकर भी पाप करते है। अर्थात ज्ञान होने पर भी पाप करने से अधिक पाप का बंध होता है।

18 पाप स्थानकों में चौथा है मैथुन पाप – मैथुन का अर्थ होता है मिलना। दो व्यक्ति, वस्तु का परस्पर मिलना मैथुन कहलाता है। मैथुन का अर्थ है अब्रम्हचर्य। ब्रम्ह का अर्थ है आत्मा। चर्य का अर्थ है रमण करना। अर्थात आत्मा के रमण करना।
किसी भी इंद्रियों के विषय से आत्मा का जुड़ना अब्रम्हचर्य है । आत्मा का आत्मा से जुड़ना ब्रम्हचर्य है। संसार में किसी भी वस्तु का आनंद लेना ही अब्रम्हचर्य है।