
धमतरी l श्री पार्श्वनाथ जिनालय, इतवारी बाजार, धमतरी में विराजमान परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब न के दिव्य प्रवचन में जीवन और आत्मकल्याण के महत्वपूर्ण सूत्रों को आत्मीय शैली में प्रस्तुत किया।
महाराज साहेब ने फरमाया कि —
“आगे प्यार, पीछे खार — यही संसार का नियम है।”
हम प्रायः अपने कर्मों से दूसरों के जीवन में कांटे बोते हैं और जब वही कांटे हमारे पथ में आते हैं, तो दुख प्रकट करते हैं। जीवन का बहुमूल्य समय — बचपन, यौवन और बुढ़ापा — सांसारिक मोह में खो जाता है, और अंत में कोई साथ नहीं जाता। उन्होंने चेताया कि यह मानव जीवन कई जन्मों के पुण्य से प्राप्त हुआ है, इसे व्यर्थ मत जाने दो।
जिनवाणी का महत्व और जिनशासन का सौभाग्य
महाराज साहेब ने कहा कि मानव जीवन और जिनशासन दोनों का एक साथ मिलना अत्यंत दुर्लभ है। आज हमारे पास प्रत्यक्ष परमात्मा नहीं हैं, लेकिन उनकी वाणी — जिनवाणी — हमारे मार्गदर्शक के रूप में उपस्थित है। अब आवश्यक है कि हम उन्हीं के द्वारा बताए गए मार्ग पर चलकर आत्मकल्याण करें।
परिषह प्रविभक्ति — सहनशीलता ही सुख का आधार
उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्याय “परिषह प्रविभक्ति” की व्याख्या करते हुए महाराज साहेब ने बताया कि जीवन में घटने वाली घटनाओं को स्वीकार करना ही वास्तविक धर्म है। सुविधाओं की वृद्धि ने हमारी सहनशक्ति को कमजोर कर दिया है, और इसी कारण सुख भी कम होता जा रहा है। उन्होंने सहजता से समझाया —
“सुविधाभोगी जीव कभी सुखी नहीं हो सकता। सुख का मंत्र है — जो प्राप्त है वही पर्याप्त है“।
22 परिषहों की व्याख्या : क्षुधा और पिपासा परिषह
प्रवचन के दौरान प्रथम परिषह — क्षुधा (भूख) और द्वितीय परिषह — पिपासा (प्यास) पर विशेष प्रकाश डाला गया।
- भूख और भोजन का संबंध शरीर से है, आत्मा से नहीं। जो जीव भोजन के मोह से मुक्त होता है, वही आत्मोन्नति की दिशा में बढ़ता है।
- जल में असंख्य जीव होते हैं, अतः प्यास पर नियंत्रण आत्महत्या नहीं, अपितु आत्मसंयम का प्रतीक है।
अदत्तादान (चोरी) — पाप स्थानकों में तीसरा पाप
महाराज साहेब ने अदत्तादान अर्थात चोरी को तीसरा गंभीर पाप बताया। उन्होंने बताया कि —
“पुण्य छप्पड़ फाड़ कर देता है और पाप थप्पड़ मार कर छीन लेता है।”
जीवन में जब तक पुरुषार्थ नहीं होगा, तब तक सफलता टिकने वाली नहीं। चोरी से बचने के लिए जीव को पापभीरु बनना चाहिए, यानी पाप से डरना चाहिए।
जीवन की अंतिम सीख
प्रवचन के अंत में उन्होंने कहा कि —
“मरने के बाद कुछ भी साथ नहीं जाएगा। इसलिए, जब तक जीवन है, उसे संयम, सादगी और साधना के साथ व्यतीत करें। जिनशासन और आत्मकल्याण ही इस जीवन का श्रेष्ठ उपयोग है।”