
शहर में पहली बार रथयात्रा पर व्याख्यान का आयोजन
धमतरी। शहर में 106 वर्षों से चल रही रथयात्रा पर पहली बार व्याख्यान का आयोजन बुधवार रात्रि अग्रसेन भवन में किया गया। बाबा परिवार द्वारा आयोजित इस विशेष आयोजन में शहर के प्रख्यात लेप्रोस्कोपिक सर्जन डॉ. रोशन उपाध्याय ने भगवान जगन्नाथ के स्वरूप, लीला और रथयात्रा की परंपराओं पर गहन प्रकाश डाला।
डॉ. उपाध्याय ने अपने उद्बोधन में बताया कि भगवान श्रीकृष्ण जब द्वारिका लीला में प्रवेश करते हैं, तब भी उनके हृदय में ब्रज की स्मृतियाँ जीवंत रहती हैं। रानियों द्वारा रोहिणी माता से ब्रज कथा सुनने की जिज्ञासा, कथा के दौरान भगवान का रूप परिवर्तन और फिर नारद मुनि द्वारा उस स्वरूप को स्थायी बनाने की प्रार्थना – यह सब रथयात्रा के मूल दर्शन से जुड़ा है।
भगवान का अद्भुत रूप – अधूरे हाथ-पैर की कथा
डॉ रोशन उपाध्याय ने बताया कि भगवान कृष्ण ब्रज लीला, मथुरा लीला पूरी करने के बाद द्वारिकाधीश में द्वारिका लीला करने आते हैं। यहां भगवान की रानियों ने देखा कि भगवान नींद में लंबी-लंबी सांसें ले रहे हैं। श्रीमुख से आवाज निकल रही है। निंद्रा अवस्था में हां वृंदा, हां ब्रज, हां गोवर्धन, हां ललिते, हां यमुना, हां राधा का नाम निकलता है। रानियों को लगा कि वे प्रभु की इतनी सेवा करती हैं, लेकिन प्रभु सबसे ज्यादा राधाजी का स्मरण कर रहे हैं। इसका कारण पूछने रोहिणी माता के पास जाती हैं। रोहिणी माता ने कहा कि मैं ब्रज लीला के बारे में तो बता दूंगी, लेकिन इस कथा के बीच भगवान कृष्ण व बलराम न आए। वे आ गए तो विचलित हो जाएंगे। माता रोहिणी ने कथा सुनाना प्रारंभ किया। कुछ ही देर में कृष्ण एवं बलराम पहुंच गए। सुभद्रा ने अंदर जाने से रोका। इससे भगवान को संदेह हुआ। वे बाहर से ही अपनी सूक्ष्म शक्ति से ब्रज लीलाओं को सुनने लगे। कथा सुन श्रीकृष्ण, बलराम व सुभद्रा के हृदय में ब्रज के प्रति अद्भूत भाव उत्पन्न हुआ। इस भाव में श्रीकृष्ण के पैर, हाथ सिकुडऩे लगे। कथा में ऐसे भाव विभोर हुए कि मूर्ति के समान जड़ प्रतीत होने लगे। ध्यान पूर्वक देखने पर भी भगवान के हाथ-पैर दिखाई नहीं देते। इसी वक्त देवमुनि नारद पहुंचते हैं। भगवान के इस रूप को देखकर आश्चर्यचकित हुए और निहारने लगते हैं। नारदजी ने कहा कि हे प्रभु ये आपका कैसा रूप है। मेरी इच्छा है कि मैंने आज जो आपका रूप देखा वह रूप आपके सभी भक्त देखें। यह रूप चिरकाल तक देखने को मिले। इस रूप पर आप पृथ्वी पर वास करें। भगवान ने कहा कि राजा इंद्रद्युम्न अपनी पत्नी गुंडिचा के घर संतान के लिए तप कर रही हैं। उन्हीं के घर दारून विग्रह के रूप में जन्म होगा। 3 स्वरूप में निर्माण होगा। एक उनका स्वयं, दूसरा बलराम और तीसरा बहन सुभद्रा। इसी दौरान भगवान विश्वकर्मा बढ़ई के रूप में पहुंचते हैं। राजा ने बढ़ई से भगवान की प्रतिमा बनाने के लिए कहा। बढ़ई ने शर्त रखा कि मूर्ति बनाने में 21 दिन का समय लगेगा, लेकिन इस बीच कोई भी मूर्ति निर्माण कक्ष में न आए। यदि कोई पहुंच गया तो मूर्ति उसी हालत में छोडक़र चले जाऊंगा। मूर्ति का निर्माण बढ़ई ने शुरू किया। अचानक 14 वें दिन से हलचल बंद हो गई तब रानी बलात प्रवेश करते हुए भीतर चली जाती हैं। इससे भगवान विश्वकर्मा क्रोधित होकर चले जाते हैं। तभी अधूरे हाथ, अधूरे पैर, गोल आंखें देखकर रोने लगती है। तब भगवान प्रकट होते हैं और गुंडिचा से कहते हैं कि यह मेरा कलिकाल का पूर्ण स्वरूप है। ठीक भाव से देखोगी तो यहीं मेरा पूर्ण स्वरूप है।
माधवदास से जुड़ी है भगवान के बीमार होने की कथा
डॉ. उपाध्याय ने बताया कि भगवान 15 दिन तक बीमार रहते हैं और उन्हें काढ़ा (औषधि) दी जाती है। यह कथा भक्त माधवदास से जुड़ी है, जिनकी सेवा करने हेतु स्वयं भगवान ने उनके कष्ट को धारण किया।
तीन स्थानों पर रूकता है रथ
रथयात्रा के दौरान भगवान का रथ तीन विशिष्ट स्थलों पर रूकता है:
1. भक्त बलराम दास के स्थान पर
2. भक्त सालबेग के स्थान पर
3. श्रद्धारानी के सम्मान में सारधा चौक पर
रथों की विशेषता
बलराम का रथ (तालध्वज) – सबसे ऊंचा, 44 फीट, 14 पहिए, सारथी मताली
सुभद्रा का रथ (दत्रदलन) – 43 फीट, 12 पहिए
जगन्नाथ का रथ (नंदीघोषण) – 35 फीट, 16 पहिए
श्रोताओं की भारी उपस्थिति, प्रसादी वितरण
इस आध्यात्मिक व्याख्यान को सुनने शहर और ग्रामीण क्षेत्रों से बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचे। कार्यक्रम के अंत में सभी को खिचड़ी प्रसाद का वितरण किया गया।