
धमतरी | परम पूज्य उपाध्याय प्रवर अध्यात्मयोगी महेंद्र सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य उपाध्याय प्रवर युवामनीषी स्वाध्याय प्रेमी मनीष सागर जी महाराज साहेब के सुशिष्य परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य योगवर्धन जी महाराज साहेब श्री पार्श्वनाथ जिनालय इतवारी बाजार धमतरी में विराजमान है। आज दिनांक 25 जुलाई 2025 को परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि जब जीवन में बचपना होता है तब तब खिलाते है और आनंद की अनुभूति करते है। बचपन उस खिले हुए फूल की तरह होता है जो सबको अपनी ओर आकर्षित करता है। जीवन में जब जवानी आएगी तो सारा जमाना तेरी तारीफ करेगा। तेरी फूल जैसी काया को देखकर हर कोई तुझे मनाने का, लुभाने का प्रयास करेगा। तेरे निकट आने का प्रयास करेगा। जीवन में जब बुढ़ापा आएगा तो अपने भी पराए हो जाएंगे। जो बचपन और जवानी में तेरे निकट रहे है, जो तुझे अपना मानते थे। बुढ़ापा आने पर वो सब दूर हो जाएंगे। जीवन का कारवां खत्म होने से पहले जीवन को सफल बनाना है। अवसर चूकने के बाद कोई साथ नहीं रहता। तेरे कदम साहस के साथ जब सफलता की ओर बढ़ेंगे तो निश्चित ही सफलता प्राप्त होगी। चातुर्मास काल में जिनवाणी के माध्यम से आत्मा को सजाने का प्रयास करना है। आत्मा से दुर्गुणों को निकालकर सदगुणों से सजाने का प्रयास करना है ।परमात्मा के वाणी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पहले उन्होंने अपने जीवन में उतारा है फिर हमे वैसे ही जीवन जीने को कहा है। अर्थात परमात्मा ने परम सुख की प्राप्ति पहले स्वयं किए फिर हमे उस मार्ग को बताया है अर्थात परमात्मा के वचन प्रमाणित है। जीवन में अगर मन कमजोर हो जाए तो पूरा शरीर उससे प्रभावित हो जाता है। किंतु फिर भी हम शरीर को मजबूत करने जी रहे है जबकि ज्ञानियों का कहना है कि हमें मन को मजबूत करने का प्रयास करना चाहिए। परमात्मा के वाणी की यह विशेषता है कि इससे शरीर का नहीं वरन आत्मा के विकास का मार्ग बताया गया है। जिन शासन में कोई भी अनुष्ठान शरीर की पुष्टि के लिए नहीं है बल्कि आत्मा के विकास के लिए अर्थात सिद्ध बुद्ध और मुक्त होने के लिए है।
22 परिषह में छठवां है वस्त्र परिषह – वस्त्र संबंधी सहनशीलता बढ़ाना। हमें जीवन में वस्त्रों के लिए विशेष मोह नहीं रखना चाहिए। वस्त्रों के प्रति राग द्वेष का भाव नहीं होना चाहिए। वस्त्र के कारण कभी भी आत्मा का पतन नहीं होना चाहिए। हम जीवन में शरीर को सुंदर बनाने के लिए वस्त्र के प्राथमिकता देते है जबकि ज्ञानियों कहना है कि आत्मा को सजाने के लिए साधना रूपी वस्त्र को प्राथमिकता देनी चाहिए। ज्ञानीजन शरीर को भी आत्मा का वस्त्र मानते है। जो समय समय पर बदलते रहता है। जीवन में मिले हुए पुण्य को पानी की तरह बहा देते है। पिछले भव के कर्मों के कारण हमें दिवाली जैसा पुण्य मिला है। किंतु उसका भोग करते हुए हम पाप का बंध अधिक करते है। परिणाम स्वरूप आने वाले भव में ये हमारा दीवाला निकाल देगा। सातवां परिषह है अप्रिय परिस्थिति परिषह – कभी कभी जीवन में न चाहे वैसी परिस्थिति आ जाने पर भी हमे अनुकूल रहना चाहिए। क्योंकि परिस्थितियों का आना हमारे हाथ में नहीं है। कर्म के उदय के कारण परिस्थितियां बदलते रहती है। ज्ञानी कहते है प्रतिकूल या अप्रिय परिस्थिति को सहन करने वाला अपनी आत्मा के विकास के मार्ग पर आगे बढ़ जाता है। आज जीवन में सुविधा बढ़ रही है। और सुविधाओं से मन कमजोर होता है और कमजोर मन में ही रति – अरति अपना स्थान बना लेता है। यही कारण है कि ज्ञानीजन प्रिय स्थिति में सहनशील बनने का उपदेश देते है। आठवां परिषह है चलने, बैठने,सोने संबंधी परिषह – हमे चलने-फिरने, बैठने और सोने का कार्य करते समय प्रतिकूल परिस्थिति का सामना करना पड़े तो सहनशील होना चाहिए। ज्ञानी कहते है अगर ऊबड़ खाबड़ या असमतल रास्ते पर चलना पड़े या बैठना पड़े या सोना पड़े। तो इसे कर्मों का उदय मानकर स्वीकार कर लेना चाहिए। जीवन को सुविधाभोगी के स्थान पर साधना भोगी होने का प्रयास करना चाहिए। ताकि आत्मा का विकास हो सके। 18 पाप स्थानकों में चौथा है मैथुन पाप – परमात्मा कहते है इस पाप को जितने वाला सभी पापों को जीत सकता है। क्योंकि संसार में वासना वृति का पाप से सबसे अधिक हो रहा है। अगर मैथुन पाप को राजा माने, तो शेष पाप इसकी प्रजा के समान है। वासना की पूर्ति के लिए जीव अन्य पाप लगातार करता है। और आज इस पाप को करने में कोई संकोच भी नहीं करता। यह पाप अंधकार और एकांत में और अधिक बढ़ता है। ज्ञानी कहते है हमे आत्मा को जानना है और पुरुषार्थ करना है कि हम इस पाप से मुक्त हो जाए। इस पाप से मुक्त होकर ही हम आने वाले भव में मुनि बन सकते है और मुक्त होने की पात्रता प्राप्त कर सकते है।