Home आयोजन गीता का सार भगवान की शरणागति है : विजयानंद गिरी महाराज

गीता का सार भगवान की शरणागति है : विजयानंद गिरी महाराज

दुर्लभ सत्संग समिति द्वारा आयोजित स्वामी विवेकानंद गिरी के प्रवचन का सातवां दिन

धमतरी। सभी वेदों का उपनिषद सार है। उपनिषद का सार गीता है और गीता का सार भगवान की शरणागति है। जीव का अंतिम पुरुषार्थ ईश्वर की शरणागति है। मानव को चाहिए कि भगवान की महिमा का गुणगान करें। उनकी महिमा को स्वीकार करें। भगवान की महिमा काे स्वीकार करने का मतलब यह है कि भगवान हमारे हैं। मानव शरीर परमात्मा के बिना कुछ भी नहीं है । परमात्मा को प्राप्त करना ही मानव का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। यह बातें नूतन स्कूल प्रांगण में चल रहे दुर्लभ सत्संग के सातवें दिन ऋषिकेश से पधारे स्वामी विजयानंद गिरी महाराज ने कही।

स्वामी विजयानंद गिरी महाराज ने आगे कहा कि मानव जीवन भर जन, धन, अपना, पराया का अभिमान करता है किंतु परमात्मा हमारा है। भगवान हमारा है और मैं भगवान का हूं। इस बात का ध्यान हमेशा रखना चाहिए। भगवान कहते हैं कि मैं सबके हृदय में विराजमान हूं और सबको नियंत्रण करता हूं। मानव सोचता है कि मेरे द्वारा अच्छा बुरा कार्य जो हो रहा है वह भगवान करा रहा है किंतु यह सत्य है जो परमात्मा हमें जीवन दिया है वह बुरा कार्य करा ही नहीं सकता। व्यक्ति बाह्य आडंबर से बुरा कार्य करता है।

भगवान की नजर में कोई छोटा बड़ा नहीं
उन्होंने आगे कहा कि भगवान में तीन गुण है- वह सर्वज्ञ, दयालु और समर्थ है। परमात्मा के रहते हमें दुख का अनुभव नहीं हो सकता। भगवान सभी युग में विद्यमान है तो संभव है कि कलयुग में भी विद्यमान है। भगवान कहीं भी, कभी भी है, उसका अभाव नहीं है। भगवान मानव को उसकी इच्छा से मिलता है । इसके लिए सच्ची इच्छा की आवश्यकता है। भगवान अपने सभी जीवों के प्रति समान भाव, समान दृष्टि रखते हैं। इसलिए कोई उनकी नजर में कोई छोटा बड़ा नहीं है। लोग कहते हैं कि कण कण में भगवान है किंतु सत्य यह है कि कण-कण ही भगवान है । सिर्फ दृष्टि साफ और सच्ची होनी चाहिए। भगवान को प्राप्त करना बिल्कुल सरल है। सिर्फ प्रबल इच्छा शक्ति, मन की उत्कंठा, व्याकुलता, करुणा का भाव होना चाहिए। मानव को चाहिए कि सांसारिक गतिविधियों में न उलझकर भगवान प्राप्ति, भगवान को प्रसन्न करने में लग जाए तो अवश्य परमात्मा का दर्शन होगा। मानव को चाहिए कि सतत परमात्मा का चिंतन करना चाहिए । परमात्मा अपने सभी जीवों के प्रति सतत चिंतन करते रहते हैं।

अभिमान से परमात्मा का दर्शन नहीं होता
उन्होंने आगे कहा कि भगवान को साधन से नहीं खरीदा जा सकता। भगवान को सतत चिंतन और भाग्य से ही पाया जा सकता है। अभिमान से परमात्मा का दर्शन नहीं होता। लघुता से प्रभुता-अर्थात निर्बल होकर ही परमात्मा का दर्शन किया जा सकता है। जो ईश्वर की शरण में चला जाता है तो उसकी चिंता भगवान करने लगता है।

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